Religion: वाल्मीकि रामायण में इल (इला) और पुरुरवा का अनोखा प्रसंग
Unique incident of Il (Ila) and Pururva in Valmiki Ramayana.
वाल्मीकि रामायण में यह प्रसंग उत्तरकाण्ड में आया है। यहाँ इस प्रसंग का विस्तार के साथ चार सर्गों ८७ से ९० में दिया गया है। यहाँ प्रसंग बड़ा ही रोचक है। अत: युवा पीढ़ी के ज्ञानार्जन को दृष्टिगत रखते हुए वर्णित किया गया है। अयोध्या में अश्वमेघ यज्ञ के प्रसंग में सुनाया गया है। लक्ष्मण और भरत ने श्रीराम से अश्वमेधयज्ञ करने के लिए अनुरोध किया। अनेक उदाहरण देकर उन्होंने अश्वमेध यज्ञ का महत्व एवं उसकी उपयोगिता प्रतिपादित की। लक्ष्मण ने अश्वमेधयज्ञ से सम्बद्ध कुछ प्राचीन आख्यान भी सुनाए। लक्ष्मण की बात का अनुमोदन करते हुए अश्वमेध के महत्व को व्यक्त करने राजा इल का यह प्रसंग भी श्रीराम ने इसी सन्दर्भ में इन्हें सुनाया है।
श्रीराम हँसते हुए लक्ष्मण से बोले- लक्ष्मण वृत्रासुर का सारा प्रसंग और अश्वमेधयज्ञ का जो फल तुमने जैसा बताया है यह सब उसी रूप में ठीक है।
श्रूयते हि पुरा सौम्य कर्दमस्य प्रजापते:।
पुत्रौ बाह्लीकश्वर: श्रीमानिलो नाम सुधार्मिक:।।
वाल्मीकिरामायण उत्तरकाण्ड सर्ग ८७-३
सौम्य! सुना जाता है कि पूर्वकाल में प्रजापति कर्दम के पुत्र श्रीमान इल बाह्लिक देश के राजा थे। वे बड़े धर्मात्मा नरेश थे। उसने समस्त पृथ्वी को अपने वश में करके पुत्र के समान उसका पालन किया। सौम्य! रघुनन्दन! परम उदार देवता, दैत्य, नाग, राक्षस, गन्धर्व और महामनस्वी यज्ञ ये सब भयभीत होकर सदा राजा इल की स्तुति-पूजा करते थे। एक समय मनोहर चैत्र मास में वह अपने भृत्यवर्ग एवं सेना के साथ मृगया (शिकार) के लिये सुन्दरवन की ओर गया। उस राजा ने वन में सैकड़ों-हजारों-हिंसक वन्य जन्तुओं को मारा फिर भी उसकी तृप्ति नहीं हुई।
इस प्रकार मृगया करता हुआ वह राजा उस वन में जा पहुँचा, जहाँ महासेन (कार्तिकेय) का जन्म हुआ था।
उस प्रदेश में अजेय भगवान शंकर अपने समस्त अनुचरों से परिव्रत शैलराज-पुत्री के साथ विहार कर रहे थे। उस समय देवी पार्वती की प्रसन्नता के लिए शंकरजी ने स्त्री का रूप धारण कर लिया था। उस प्रदेश में जहाँ कहीं पुरुष वाचक वृक्ष अथवा प्राणी थे, वे सब स्त्री रूप में परिवर्तित हो गये थे। जितनी भी वस्तुएँ पुरुषवाचक थी, वे सब ही की सब स्त्रीवाचक बन गई थी। वहाँ जो कुछ भी चराचर प्राणियों का समूह था, वह सब स्त्रीनामधारी हो गया था। इसी समय कर्दम के पुत्र राजा इल सहस्त्रों हिंसक पशुओं का वध करते हुए उस देश में आ गए।
स दृष्ट्वा स्त्रीकृतं सर्वं सव्यालमृगपक्षिणम्।
आत्मानं स्त्रीकृतं चैव सानुगं रघुनन्दन।
वाल्मीकिरामायण उत्तरकाण्ड सर्ग ८७-१५/१/२
वहाँ आकर राजा इल ने देखा सर्प, पशु और पक्षियों सहित उस वन का सारा प्राणिसमुदाय स्त्री (नारी) रूप हो गया है। लक्ष्मण! सेवकों सहित अपने आपको भी उन्होंने स्त्री रूप में परिणत हुआ देखा। अपने को इस स्थिति में देखकर उसे अति दु:ख हुआ। परन्तु जब उसे ज्ञात हुआ कि यह सब शिवजी के प्रभाव से हुआ है तो वह और भी भयभीत हुआ। अपने साथ अपने समस्त अनुचर और सेना को लेकर वह शीघ्र ही उनकी शरण में गया। उस समय देवी के साथ विराजमान हुए वर देने वाले भगवान् शम्भू ने हँसकर उससे कहा- कर्दम के पुत्र राजर्षि उठो, पुरुषत्व के अतिरिक्त तुम जो चाहे वर माँग सकते हो। सुनकर राजा बड़ा दुखी हुआ। उसने शिवजी से कोई वर नहीं माँगा। फिर उसने बड़ी भक्ति और विनयपूर्वक उमादेवी को प्रणाम करके स्त्रीत्व को दूर करने के लिए प्रार्थना की। राजा की प्रार्थना को सुनकर शिवजी की सम्मति से देवी ने कहा- ‘हे राजन् आधे वर को देने वाले भगवान् शंकरजी हैं और आधे की मैं। अत: स्त्रीत्व और पुरुषत्व में से जो चाहे आधा ले सकते हो।Ó
राजन्! तुम पुरुषत्व प्राप्ति रूप का जो वर चाहे तो उसके आधे भाग के दाता तो महादेवजी हैं और आधा वर तुम्हें मैं दे सकती हूँ। (अर्थात् तुम्हें सम्पूर्ण जीवन के लिये जो स्त्रीत्व मिल गया है, उसे आधे जीवन के लिऐ पुरुषत्व में परिवर्तित कर सकती हूँ) इसलिए तुम मेरा दिया हुआ आधा वर स्वीकार करो। तुम जितने-जितने-जितने काल तक स्त्री और पुरुष बने रहना चाहो उसे मेरे सामने कहो-
तदभ्दूततरं श्रुत्वा देव्या वरमनुत्तमम्।
सम्प्रहष्टमना भूत्वा राजा वाक्यमथाब्रवीत।।
यदि देवि प्रसन्ना में रूपेणाप्रतिमा भुवि।
मासं स्त्रीत्वमुपासित्वा मासं स्यां पुरुष: पुन।।
वाल्मीकिरामायण, उत्तरकाण्ड सर्ग ८७-२५-२६
देवी पार्वती का वह परम उत्तम और अत्यन्त अद्भुत वर सुनकर राजा के मन में बड़ा हर्ष हुआ और वे इस प्रकार बोले देवि! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मैं एक मास तक भूतल पर अनुपम रूपवती स्त्री के रूप में रहकर फिर एक मास तक पुरुष होकर रहूँ।
राजा के मनोभाव को जानकर पार्वती देवी ने यह शुभ वचन कहा- ऐसा ही होगा। राजन! जब तुम पुरुष रूप में रहोगे, उस समय तुम्हें अपने स्त्री जीव की स्मृति (याद) नहीं रहेगी और जब तुम स्त्री रूप में रहोगे उस समय तुम्हें एक मास तक अपने पुरुष रूप का स्मरण नहीं रहेगा। इस प्रकार कर्दमकुमार राजा इल एक मास तक पुरुष रहकर फिर एक मास तक त्रिलोक सुन्दरी नारी इला के रूप में रहने लगे। श्रीराम द्वारा कही हुई इल के चरित्र से सम्बन्ध रखने वाली इस कथा को सुनकर लक्ष्मण और भरत दोनों को आश्चर्य हुआ।
प्रथम मास में जब वह राजा इल त्रिभुवन सुन्दरी बन गया तो स्त्रीत्व को प्राप्त अपने समस्त अनुचरों के साथ उस वन में विचरण करने लगा। वह वन अत्यन्त ही सुन्दर था। अनेक प्रकार के वृक्ष और लताओं से भरा हुआ था। पर्वतों में परिभ्रमण करते हुए उनके मध्य में वहाँ उसने एक अति सुन्दर सरोवर देखा। जिसके किनारों पर अनेक प्रकार के पक्षी सुशोभित थे। इस सरोवर के मध्य में कठोर तप करते हुए परम तेजस्वी सोम के पुत्र बुध को देखा। अपनी अनुचर सित्रयों के साथ विलोदन करके इला ने उस सरोवर को विक्षुब्ध कर डाला। बुधने इला की ओर देखा तो देखते ही वह कामदेव के बाणों से आहत हो गया। उसका समस्त धैर्य धराशायी हो गया एवं मन चलायमान हो गया। तीनों लोकों में सबसे अधिक सुन्दरी इला को देखकर वह मन में विचार करने लगा, ‘देवताओं में, असुरों में, नागों और अप्सराओं में ऐसी सुन्दर स्त्री पहले मैंने कभी नहीं देखी। यदि यह किसी अन्य पुरुष की पत्नी न हो तो यह मेरे लिए योग्य है।
तदनन्तर बुध ने आश्रम में पहुँचकर उन धर्मात्मा ने सभी सुन्दरियों को आवाज देकर बुलाया ओर उन सबने आकर इन्हें प्रणाम किया। तभी बुध ने उन सब स्त्रियों से पूछा- यह लोक सुन्दरी नारी किसकी पत्नी है और किसलिये यहाँ आई है? ये सब बातें तुम शीघ्र मुझे बताओ। उसे सुनकर उन सब स्त्रियों ने मधुर वाणी में कहा- ब्रह्मन्! यह सुन्दरी हमारी सबकी स्वामिनी हैं। इसका कोई पति नहीं है। यह हम लोगों के साथ अपनी इच्छा के अनुसार वन प्रान्त में विचरती रहती है। उन स्त्रियों का वचन सब प्रकार से स्पष्ट था। उसे सुनकर बुध ने पुण्यमयी आवर्तनी विद्या का आर्वन (स्मरण) किया। तब मुनिवर बुध ने उन सभी स्त्रियों से कहा-
अत्र किं पुरुषीर्भूत्वा शैलरोधसि वत्सयथ।
आवस्तु गिरावस्मिञ्शीघ्रमेव विधीयताम्।।
वाल्मीकिरामायण उत्तरकाण्ड सर्ग ८८-२२
तुम सब लोग किंपुरुषी (किन्नरी) होकर पर्वत के किनारे रहोगी। इस पर्वत पर शीघ्र ही अपने लिये निवास स्थान बना लो।
पत्र और फल-फूल से ही तुम सबको सदा जीवन निर्वाह करना होगा। आगे चलकर तुम सभी स्त्रियाँ किंपुरुष नामक पतियों को प्राप्त कर लोगी। किंपुरुषी नाम से प्रसिद्ध हुई ये स्त्रियाँ सोम पुत्र बुध की ऐसी बात सुनकर उस पर्वत पर रहने लगी। उन स्त्रियों की संख्या बहुत अधिक थी।
किंपुरुषजाति की उत्पत्ति का यह प्रसंग सुनकर लक्ष्मण और भरत दोनों ने श्रीराम से कहा। यह तो बड़े आश्चर्य की बात है। तदनन्तर श्रीराम ने पुन: इल की कथा इस प्रकार कही कि वे सब किन्नरियाँ पर्वत के किनारे चली गई यह देखकर बुध ने उस रूपवती स्त्री से हँसते हुए कहा- सुमुखि! मैं सोमदेवता का परम प्रिय पुत्र हूँ। वरारोहे मुझे तुम अनुराग और स्नेहभरी दृष्टि से देखकर स्वीकार करो। स्वजनों से रहित उस सूने स्थान में बुध की यह बात सुनकर इला ने उन परम सुन्दर महातेजस्वी बुध से इस प्रकार कहा-
अहं कामचरी सौम्य तवास्मि वशवर्तिनी।
प्रशाधि मां सोमसुत यथेच्छसि तथा कुरु।।
वाल्मीकिरामायण उत्तरकाण्ड सर्ग ८९-६
सौम्य सोमकुमार! मैं अपनी इच्छा के अनुसार विचरने वाली (स्वतंत्र) हूं किन्तु इस समय आपकी आज्ञा के अधीन हूँ अत: मुझे उचित सेवा के लिए आदेश दीजिए और जैसी आपकी इच्छा हो वैसा कीजिए।
इल का यह अद्भुत वचन सुनकर कामासक्त सोमपुत्र को बड़ी प्रसन्नता हुई और वे उसके साथ रमण करने लगे। रमण करते हुए चैत्र मास क्षणभर के समान व्यतीत हो गया। जब चैत्र मास पूरा हो गया तो अगले दिन प्रभात में नींद खुलने पर इला ने अपने को कर्दम पुत्र इल के रूप में पाया। उन्होंने देखा- सोमपुत्र वहाँ जलाशय में तप कर रहे हैं। उनकी भुजाएँ ऊपर को उठी हुई है और वे निराधार खड़े हैं। उस समय राजा इल ने बुध से कहा, ‘भगवन मैं अपने सेवकों के साथ इस दुर्गम पर्वत प्रदेश में आया था। किन्तु न तो मेरी सेना दिखाई दे रही है और न मेरे परिजन। राजा की बात सुनकर और यह जानकर की राजा स्त्रीत्वरूप प्राप्ति विषयक स्मृति के वृतांत को भूल चुका है, बुध ने उसे सात्वना देते हुए कहा ‘पत्थरों की वर्षा से तुम्हारे सब भृत्य मर गए। वात और वृष्टि के भय से पीड़ित होकर तुम इस आश्रम में सो गए थे। अब कोई भय का कारण नहीं है, चिन्ता मत करो। सब प्रकार से आश्वस्त होकर फल-फूल खाते हुए तुम सुखपूर्वक इस आश्रम मेें रहो।Ó
राजा इल को बुध की बात से आश्वासन तो मिला किन्तु अपने सेवकों के नाश से उसे बहुत दु:ख भी हुआ। उसने कहा मैं अपने राज्य को छोड़ दूँगा। मैं अपने सेवकों के बिना एक क्षण के लिए भी राज्य नहीं कर सकता। मेरा ज्येश्ठ पुत्र राशबिन्दु बड़ा धर्मात्मा और यशस्वी है। वही अब राजा बनेगा। अपने परिचारकों की सुखी स्त्रियों को मैं अशुभ समाचार नहीं दे सकता। राजा की बात सुनकर उसे सांत्वना देते हुए बुध ने कहा- ‘हे महाबली! कर्दम पुत्र तुम सन्ताप मत करो। एक वर्ष तक तुम यहाँ रह लोगे तो तुम्हारे हित के लिये मैं कार्य करूँगा। बुध की यह बात सुनकर राजा ने वहीं रहने का निश्चय किया। एक मास तक जब वह स्त्री रहता तो सदैव बुध का मनोरंजन करता और जब अगले मास में पुरुष हो जाता तो धार्मिक क्रियाओं में संलग्र रहता। इस प्रकार समय व्यतीत होता रहा। नवम मास में इला ने बुध से एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम ‘पुरुरवाÓ रखा गया। उसके उस महाबली पुत्र की अंगकांति बुध के समान थी। वह जन्म लेते ही उपनयन (यज्ञोपवीत) योग्य अवस्था का बालक हो गया। इसलिए सुन्दरी इला ने उसे उसके पिता (बुध) के हाथ में सौंप दिया। वर्ष पूरा होने में जितने मास शेष थे, उतने समय तक जब जब राजा पुरुष होते थे तब-तब मन को वश में रखने वाले बुध धर्मयुक्त कथाओं द्वारा उनका मनोरंजन करते।
एक वर्ष का समय बीत जाने पर जब राजा पुन: पुरुष बना तब बुध ने संवर्त, भार्गव, च्यवन, अरिष्टनेमि, प्रमोदन, मोदकर और दुर्वासा प्रभृति ऋषियों को बुलाकर कहा। यह कर्दम पुत्र महाबाहु राजा इल है। इसकी जो दशा है वह सब आपको ज्ञात ही है। इसका आप सब कल्याण कर दें। इस प्रकार वे सब ऋषि-मुनि आपस में विचार कर रहे थे कि इतने में बहुत से द्विजों को साथ लिये महातेजस्वी कर्दम भी उस आश्रम में आ पहुँचे। पुलस्त्य, क्रतु, वषट्कार और ओंकार भी वहाँ आ गए। वे सब मिलकर वाह्लीकपति के हित की चर्चा करने लगे। कर्दम ने अपने पुत्र के कल्याण के संबंध में उपस्थित विद्वानों से कहा ‘इस राजा के कल्याण के लिए जो मैं कहता हूँ आप सब लोग ध्यानपूर्वक सुनें। शिवजी को छोड़कर इसके कल्याण का कोई उपाय नहीं है तथा अश्वमेधयज्ञ के अतिरिक्त अन्य कोई यज्ञ उनका प्रिय नहीं है। अत: हम सब लोग इस राजा के लिये अश्वमेधयज्ञ करें।
कर्दम के प्रस्ताव पर सब लोग राजी हो गए। सम्वर्त ऋषि के शिष्य राजर्षि मरुत्त ने यज्ञ के लिए सम्भार जुटाने का कार्य अपने कंधों पर ले लिया। बुध के आश्रम के समीप ही यह यज्ञ किया गया। उससे भगवान् शंकरजी परम सन्तुष्ट हुए और यज्ञ के समाप्त हो जाने पर इल के समक्ष प्रसन्न होकर शंकरजी ने सब द्विजों से कहा-
प्रीतोऽस्मि हयमेधेन भक्त्या च द्विजसत्तमा:।
अस्य बाह्लिपतेश्चैव किं करोमि प्रियं शुभम्।।
वाल्मीकिरामायण उत्तरकाण्ड सर्ग ९०-१७
शिवजी के ऐसा कहने पर सब ब्राह्मण उन्हें इस तरह प्रसन्न करने की चेष्टा करने लगे कि जिससे नारी इला सदा के लिए पुरुष इल हो जाए। तदनन्तर शिवजी ने भी प्रसन्न होकर इला को सदा के लिए पुरुषत्व प्रदान कर दिया और ऐसा कर वे वहाँ से अन्तर्धान हो गए। अश्वमेधयज्ञ समाप्त होने पर जब शिवजी दर्शन देकर अदृश्य हो गए, तब वे सब ब्राह्मण जैसे आये थे, वैसे ही लौट गए। राजा इल ने बाह्लिक देश को छोड़कर मध्यदेश में (गंगा-यमुना के संगम के निकट) एक परम उत्तम एवं यशस्वी नगर बसाया, जिसका नाम प्रतिष्ठानपुर (प्रयाग से पूर्व गंगा के तट पर बसा हुआ वर्तमान झूँसी नामक स्थान ही प्राचीनकाल का प्रतिष्ठानपुर है)। शशबिन्दु बाह्लिक देश के राजा हुए तथा कर्दम के पुत्र इल प्रतिष्ठानपुर के शासक हुए। समय आने पर राजा इल शरीर छोड़कर ब्रह्मलोक को प्राप्त हुए और इला का पुत्र राजा पुरुरवा ने प्रतिष्ठानपुर का राज्य प्राप्त किया। श्रीराम ने भरत-लक्ष्मण से कहा कि अश्वमेधयज्ञ का ऐसा ही प्रभाव है। जो स्त्रीरूप हो गए थे, उन राजा इल ने इस यज्ञ के प्रभाव से पुरुषत्व प्राप्त कर लिया तथा दुर्लभ वस्तुएँ भी हस्तगत कर ली।